सफ़र
पानी की एक लहर थी बस,....... यूं ही चल पड़ी थी !
हिम शिखरों से होते हुए,घनी कंदराओं से गुजरते हुए,..... चल पड़ी थी !!
ना मंजिल थी ना ही कारवां था, और ना ही कुछ, होने का गुमान था!
डरना सीखा ना था मरना पता ना था, जीने का एक सुरूर था बस,.... उसी से चल पड़ी थी !!
रास्ते बढ़ते गए, कारवाँ गुजरते गए, नए विचार नए एहसास फिर वो भी मिलते गए !
कुछ यूं हुआ की मैं, मैं ना रही, इक दरिया बन गयी!!
दरिया से अलग अब जी ना पाऊँगी, मुश्किल है, उसके साथ चल भी न पाऊँगी !
और दरिया को बदलने की जद्दोजहद में अपने अस्तित्व को मिटा भी न पाऊँगी !!
क्यों न कुछ ऐसा करूँ, दरिया में बहते हुए एक मूक दर्शक बनूँ!
अठखेलियाँ खेलती हुई चुपचाप से सागर में जा मिलूं!!
कौन जाने,,,,, फिर एक वाष्प बनके उड जाऊं!
और जा मिलूँ उस सीपी से, फिर आग़ोष में खो जाऊँ !!
यशपाल ०२/ ० ८ /१ ४
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