सन 1959, 19 साल कि उम्र औऱ हसनपुर (पलवल, हरियाणा) में अध्यापक कि पहली नौकरी।
रविवार, आज स्कूल की छुट्टी थी, इसलिए समय भी बहुत था। सोचा, चलो आज वर्ज़िश के बाद मन्दिर के पास वाले कुएँ पे नहाया जाए। गरमी के दिन, नीम के घने पेडों की हवाएं और उसके उपर कुएँ का ठंडा पानी, ऐसा लगा की किसी ने स्वर्ग देखा होगा तो शायद ऐसे ही सुख का अनुभव किया होगा।
घर के हालात, नई नौकरी और अविचल सुख के ख्यालों में कदम बढ़ाये ही थे, कि देखा एक बाबाजी मंदिर के प्राँगण में समाधि लगाए बैठे हैं। घंटा, 2 घंटा बड़े धयान से उस समाधिसिथत इंसान को देखता रहा।
बाबाजी ने जब आंख खोली तो मेरा परिचय लिया और मैने भी आग्राह किया कि अपना चेला बना लें। बाबाजी ने सब जानकारी ली - घर, परिवार, नौकरी, माली हालात, और एक ऐसी बात समझाई जो 58 साल बाद भी एकदम सही बैठती है।
"देखो बेटा, इस तरफ बहुत से लोग किसी न किसी निराशा की वजह से कदम बढ़ाते हैं, मगर यहाँ कोई विरला ही सच्चा मिलता है। तुम निर्भय, निरबैर और बिना किसी लालच के अपने कर्म करते रहो - स्कूल और घर बस यही तुम्हारी कर्मस्थली हैं, इन सबसे जब थोड़ा समय मिले तो प्रभु का सिमरन अकेले बैठ, खुद ही कर लेना"।
"Such a simple & profound advice - only a man of pure heart can give this"
यशपाल 27/08/17, after a brief with Papa, over panchkula incidents...
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